Friday, May 22, 2020

अधूरे जगन्नाथ क्यों? / Lord Jagannath, the God with half-done Limbs

Lord Jagannath, the God with half-done Limbs


When my words are overcooked
in the double-tongued obscurity
of the opaque heart
I wonder
what’s the need for grief or alarm,
independence or the lack of sovereignty,
the heavy golden jewelry, the saving accounts,
the artificial hair of my neighboring beauty,
the moon, the calendar on the table, my
Omega-3 tablets, love, lust
or even poetry?


Mother! Why doesn’t He have complete limbs?
Who left Him like this--half-done?
Why is he cavernous black?
Why are his eyes always swollen and unblinking??

I search for answers in my
intrepid, unfazed heart,
nonchalant at the naked rooms;
I think of children whom the world
has deserted  
because they have derelict or half-done limbs.
The dark-skinned who have a
a frozen-time. I ponder over their providence.
Their ancient limbs and face
spinning into a papyrus.

It’s convergence my son! It’s His way of
humanizing the mechanics of tolerance.
The Lord of the Universe, Lord Jagannath,
sans complete limbs, with an ugly face,
ogling, unblinking eyes and a dark skin, is
the charming, absorbing of all, the pious of all.
The most accomplished, the most adorable, most alluring.

Then I know it’s the first light of
creative contemplation.
It’s daybreak for ingenuity
breaking the parapets of opaque.
without orders from above. 



  


अधूरे जगन्नाथ क्यों?

हृदय के अंधेरे में
दोहरी जुबान वाले
मेरे अस्पष्ट शब्द, जब ज्यादा पक जाते हैं
मैं सोचती हूं
क्या जरूरत है
वेदना या चेतना की,
स्वतंत्रता या संप्रभुता की
सोने के भारी गहनों, बैंक खातों की
मेरे पड़ोसी सुंदरी के कृत्रिम बालों की
चांद, टेबल पर रखे कैलेंडरों की  
मेरी ओमेगा-की गोलियों
प्यार, वासना या
काव्य-कविता की?

माँ! उनके पूर्णां क्यों नहीं है?
किसने उन्हें आधा-अधूरा छोड़ दिया?
क्यों वे इतने काले-कलूटे हैं?
उनकी निर्मिमेष आंखों में सूजन क्यों है?”

मैंने अपने निडर मस्तमौला हृदय में,
उन सारे प्रश्नों के उत्तर तलाशे,
नग्न कमरों की परवाह किए बगैर,
मैंने उन बच्चों के बारे में सोचा
जिन्हें दुनिया ने त्याग दिया
क्योंकि या तो वे लावारिस थे या अर्द्धांग,
या फिर ऐसे काले-कलूटे मानो समय थम गया हो
मैंने उनके तौर-तरीकों के बारे में सोचा
उनके पुराने अंग और चेहरे
जल-पादपों के इर्द-गिर्द पड़े दिखाई दिए।

“यह अभिसरण है मेरे बेटे!
यह उनका अपना तरीका है,
सहिष्णुता की यांत्रिकी को मानवीय बनाने का
ब्रह्मांड के अधिपति, भगवान जगन्नाथ
कुरूप चेहरा, बिना पांव, बिना हाथ
विस्फारित, निर्निमेष नेत्र और काली त्वचा
फिर भी आकर्षण!
सभी को अपने भीतर समाने की शक्ति
सभी से ज्यादा पवित्र
सबसे ज्यादा आकर्षक
सबसे ज्यादा लुभावनी
सबसे ज्यादा पूर्ण

तब मेरी समझ में आई,
इस सर्जनशील चिंतन की पहली किरण
अपारदर्शी मुंडेरों को तोड़ती प्रभात
बिना किसी ऊपरी आदेश के

मौत / Death

Death

The most appalling thing
about death is
when she visits
you are
absolutely
inevitably
on your own.

Life gets
 a bit distanced
like
the once near and dears
stand in the
corners of the
hospital bed
whispering, mourning
wiping your tears
if at all
as though
you were
the first and last mortal
ever
under the sun.



मौत

मौत के बारे में
सबसे भयावह बात है,
जब वह आती है,
तुम पूरी तरह से
अपने होते हो।  

जिंदगी थोड़ी दूरी पर
खड़ी होती है
मानो कोई नजदीकी रिश्तेदार
अस्पताल की शय्या के
किनारे पर खड़ा होकर
बुदबुदा रहा हो, विलाप कर रहा हो
या आंखें पोंछ रहा हो
ऐसे मानो
तुम ही
पहले और अंतिम
मरने वाले व्यक्ति हो
इस धरा पर।

नदियां उल्टी नहीं बहती / Rivers don’t Go Reverse

Rivers don’t Go Reverse

The tales of humans
are like rivers.
They never go reverse.
But they never know
where one tale touches
another’
before
both tales
touch the ocean
and merge.

Human tales are about
cooking saucy textual food,
ingredients in place.
Like a sedimentary rock
we gather moss
by layers
and swim around.
And rivers
still do not go
reverse.





नदियां उल्टी नहीं बहती

मनुष्यों की कहानियां
नदियों की तरह होती हैं
वे कभी भी उल्टी नहीं बहती
जहां एक कहानी स्पर्श करती है
दूसरी को,
इससे पहले कि
दोनों कहानियां
महासागर को छुए
और समें विलीन हो जाए।  

मानव कथाएं हैं
जायकेदार प्रसंगों का स्वादिष्ट भोजन,
सारे मसालों का उत्तम मिश्रण,
मानो तलछट्टी चट्टानों का अवसादीकरण
हम परत-दर-परत
हटाकर काई
तैरने लगते हैं इर्द-गिर्द
तब भी नदियां
उल्टी नहीं बहती।

SWIMMING AGAINST THE TIDE / ज्वार के विपरीत तैरना

SWIMMING AGAINST THE TIDE


I swim against the tide.
If not anything else, at least
I am a better swimmer!
I have the total control of
my life
for better or worse.
Unorthodox and unapologetic
facing life with glee
I swim.
I have become an expert
at the game.
I call them colonizers
who keep me ever dependent.
And chum
who toss me in the tide.
After all
the friendly ebb awaits
at the end.

 

ज्वार के विपरीत तैरना

मैं ज्वार के विपरीत तैरती हूँ  
कुछ ज्यादा नहीं तो
कम से कम एक अच्छी तैराक तो हूँ।  

मेरा अपनी जिंदगी पर पूरा नियंत्रण है
चाहे अच्छा हो या बुरा।  

रूढ़िहीन, क्षमायाचना हीन
डटकर जीवन का सामना करती हूँ
मैं तैरती हूँ
मैंने महारत हासिल की है
इस खेल में।  

मैं उन्हें उपनिवेशक कहती हूँ  
जो मुझे हमेशा पराधीन रखना चाहते हैं
और उन्हें दोस्त
जो मुझे ज्वार में उछाल देते हैं

आखिरकार
मित्रनुमा भाटा प्रतीक्षा करता है
अंत में।

इतना ज्यादा कितना ज्यादा है?/ How Much is Too Much

How Much is Too Much

I measured
a fistful of sand.
The entire horizon
looks forward to
my fingers now.
To love it
differently
beyond
gender hurts
assigned to all.
Nothing is absolute.
How much universe
is too much?

Hand-in-hand
with you
I wish
the universe
needs to be
warm
and
supple
like your palms.
Enveloped
in the spirit
of the universe.

The ocean of pain
in your eyes
incited me to think,
the universe needs
to be
somersaulted
in
coming few seconds.
Counter mythologizing
space and territory.
The flowing stone
of sculpture to womanhood
unraveling the poet
at Konark.
Why do words
have to carry the burden
of thoughts?
How much universe

is too much?

इतना ज्यादा कितना ज्यादा है?

मैंने मुट्ठी भर
बालू मापी,
अब मेरी अंगुलियों में
सारा दिग्वलय नजर आने लगा।  

लिंग-भेद से परे
उसे प्यार करना
मानो सभी को आहत करता था।  

कुछ भी पूर्ण नहीं है।  
कितना ब्रह्मांड इतना ज्यादा है?

तुम्हारी
हथेलियों पर हथेली रखकर
मैंने सोचा था
ब्रह्मांड ऊष्ण होना चाहिए
तुम्हारी
हथेलियों की तरह,
ब्रह्मांड की
आत्मा के वलय में।


तुम्हारी आंखों के
दुख के महासागर ने
मुझे सोचने पर
विवश किया कि
ब्रह्मांड कुछ ही सैकेंडों में
कलाबाज हो जाएगा
अंतरिक्ष और धरती के
मिथकों के विपरीत।  
कोणार्क में
नारीत्व की भास्कर्य कला के
खिसकते पत्थर
कवि की समस्या का समाधान करेंगे

आखिर शब्दों को
विचारों का वजन
क्यों उठाना पड़ता है?
कितना ब्रह्मांड
इतना ज्यादा है?

WHEN WORDS FIND THEIR VOICE / जब शब्दों को उनकी गर्जना मिली

WHEN WORDS FIND THEIR VOICE


How shall I appropriate myself
for you?
As and when I alter habits
you change the conditions.
How shall I travel into your
forest of Pandora's box?
As and when I open
the forbidden Pandora box, you disappear.
How shall I wash away your
inhibitions that reveal my naked urge?
As and when I try, you rendezvous with dusky
spaces where spirits exist in.
How shall an inebriated glee
glow in my lipstick?
As and when light shines from beneath
someone casts a shadow.

जब शब्दों को उनकी गर्जना मिली

कैसे मैं अपने आपको
तुम्हारे अनुरूप बनाऊं?
जब मैं अपनी आदतें बदलती हूँ  
तब तुम अपनी शर्तें बदल देते हो।  

कैसे मैं तुम्हारे
भानुमति पिटारे के अरण्य में  भटकती रहूँ 
जब मैं वह निषिद्ध पिटारा
खोलती हूँ, तुम अंतर्ध्यान हो जाते हो।  

कैसे मैं तुम्हारी वर्जना मिटाऊं 
जिसमें मेरा नंगा आग्रह प्रकट होता है ?
जब-जब कोशिश करती हूँ,
तुम मिल जाते हो
शाम की उन जगहों पर
जहां आत्माएं निवास करती हैं।  

कैसे मेरे लिपस्टिक पर
उन्मादित उल्ला चमकेगा?
जब-जब चमक आती है,
नीचे से कोई अंधेरा कर देता है।

अधूरे जगन्नाथ क्यों? / Lord Jagannath, the God with half-done Limbs

Lord Jagannath,  the God with half-done Limbs When my words are overcooked in the double-tongued obscurity of the opaque heart I wonder what...