Growing Up Amid the Ruins and the Rains
Growing up in Udayagiri, my Utopia,
a sleepy, small town in central Odisha, India,
was just like growing up amid the ruins.
It was love that kept us alive. We
learnt juvenile that one law that
binds or bends or fructifies all of us is love.
mornings at Udayagiri. “Akashvani”
the news-reader Gouranga Charan Rath
welcomes you….” We merely listened
to the voice, imagined a pot-bellied
bald man with chicken pox marks on his face
reading news while scrubbing his back.
Rains were awful, power cuts for
weeks, incessant rains, mountain rains
with thunder storm, eerie wind. Mother
was prepared with her kerosene stove
for a minimal meal office and dahlia
with pickles and papadam since her
soil-hearth was wet for days. The
open-drain in our courtyard, water
splashing, flooding like Mahanadi
in Cuttack, was a pleasure to us
and a never-ending penalty for our maid Tintu-maa
all the time scrubbing water with a broom and grumbling .
Time was flooding somewhere between esterday
today, amid our ancestral blessings of defeat
and loss. is today an answer to yesterday?
Water lingered in Siriki dam, Dugudi, Christian mountain
Nita street, Pathan street, market square, Mahaguda street
and MMC hospital, the only one in the district
where doctors from the U.K. made occasional appearances
giving hope to the poor and the faith to the agreeable.
My youngest siblings were privileged to see the light of life there.
Hours and places, now beyond the recognition of time.
Like a speech dictionless, without a meaning.
Or, the nameless shrubberies of the Himalayas.
After days and days of rain, as the sun was
about to disappear from our faces, cockroaches
and dragon-flies taking over our kitchen
and bed-posts, we pretending with books
inside the compulsory mosquito-net,
one evening, Gouranga Charan Rath
again, "Akashvani...". From one end of
Udayagiri to another, Mili bayani's or
Meraj baya's rough hands exploding,
exploring the ruins of rain, marveling at
the town's weak fortifications. The water was
receding everywhere—Udayagiri, Daringbadi,
Kumbharkupa, Kanabageri, Badanaju, Malikapori, Kalinga and
further down at Bhanjanagar During such
nights, I never slept, just counting the legs
of a peeled-off bleached cockroach, perched like
a dinosaurs on the top of my head
above the mosquito-net. Thinking of the
low-lying homes and flooded fields where
nothing. grew except weeds, I sighed. That night
I almost heard the deep hollow words echo
inside my sister's disturbed sleep, against
her dream of roaring waters, and half-drowned
'voices of my dead brother and deceased
neighbours—Babu, Guni, Bapuni—the wailing
of their mothers in a sing-song voice.
And saw my mother's loss of her only son
in her under-eye dark circles. As I
prepared myself for the lingering night's sleep,
my sister whispered, "Did you hear something'?"
Pulling our pooled quilt over my face,
I said, "Didi, you may sleep—Udayagiri is
safe now." She had a reticent sleep.
At night, in the culmination of the rain, we could
perceive the stars, the moon, round and full,
wearing a romantic small rainbow tiara and enjoying
its embryonic telluric privileges while sketching
the disposed waters to the ambitious blue. Ambitious?
No, Udayagiri was far from all ambitions. It never is.
But the morning sun was. After months and
months of rain, an ambitious wintry sun.
Udayagiri had nothing to do with
the rich ancient maritime history of Odisha.
The damp, black evenings were like faces s
of onus; the rainstorm of our sins
wailed in the form of jackals from the
mountains all around. In the photographs
of my insomniac eyes, the sounds of my hurt
wandered. I learnt the alphabet of silence and patience
without animosity, anger or pretense
from Udayagiri winters. Udayagiri. the Darjeeling of Odisha.
Were there only two seasons in Udayagiri'? The rain and
winter? The ambitious sun always remained
lenient. hiding- in the darkly-begotten womb of dense forests of Kalinga ghat
Summer was the other name for Spring'.
Beige birth sang pleasantly from behind
the leafless gulmohur trees. loaded with red flowers.
On my way from school. miming and nagging
a cuckoo to yell. forgetting her sweet voice.
I enjoyed that game. A game that makes
me livid now elsewhere in the metropolis.
My tissues are aerated with echoes of the
chirping birds of Udayagiri till today: I am christened.
I was christened. All along it has been there.
I feel its existence. but not sure of the
space it has occupied in my being.
Growing up among the ruins, patiently,
I have become mature in the art of frolicking
with my shadow till sundown. Each
dark night, it creeps under my door,
that feel of love and the sense of loss borrowed
from Udayagiri. I feel its rustle, but
cannot touch it. Sense its breath through
the walls, thinking of the walls of our
Golla Street house, the timeless patches on the
walls like illusory shadows of elephants,
zebras or a mad woman's ruffled head or
a dog barking or yawning. Breathing shadows.
In darkness I touch and feel the ruins.
Ruined pillars, archways, moth-destroyed wedding albums.
Sultry, sticky cream-powder-comb boxes. Detached parents and sisters.
I draw a portrait on the sky. It senses
my anguish. The heavens descend with their quills.
Failing to get its clue, I sulk, shrivel and wilt.
मैं बड़ी हुई उदयगिरि में, वह मेरा स्वप्न-नगर,
भारत के ओडिशा प्रांत का एक छोटा-सा शहर
चारों ओर भरे हुए निर्वासित खंडहर-ही-खंडहर ।
वहाँ के प्यार ने हमें दिया नया जीवन
किशोरावस्था में सिखाया मूल कानून
‘केवल प्रेम ही दे सकता है हमें सम्मान’ ।
उदयगिरी में होती सुप्रभात
" आकाश वाणी के न्यूज-रीडर गौरंगा चरण रथ द्वारा... आपका स्वागत....।"
हमारे कानों में गूँजती उसकी बात ।
एक मोटे व्यक्ति की मन में उभरती एक तस्वीर
गंजा, चेहरे पर चेचक के निशान, पढ़ते हुए खबर
बीच-बीच में खुजला रहा होगा अपनी कमर ।
भयानक बारिश, बिजली गुल सात-सात दिन
लगातार बारिश, तेज चक्रवात, आंधी-तूफान
कलकल करते पहाडी झरने, सायं-सायं करती पवन ।
मां केरोसिन स्टोव पर करती गरम
पकाती चावल-दाल, साथ में पापड़ नरम
कई दिनों तक मिट्टी-चूल्हा रहता नम ।
हमारे घर-आँगन की खुली नाली का उफान
जैसे कटक में महानदी का जल-प्लावन,
पानी में छप-छप करने से प्रसन्न होता मन ।
पर होती हमारी मददगार टिंटू-माँ परेशान
लगता उस पर अंतहीन लगान
बुहारती हर समय झाड़ू से आँगन ।
आज और कल के बीच बहता समय का सैलाब
हार और नुकसान ही हमारा पुश्तैनी आशीर्वाद
क्या आज होगा कल का जवाब ?
धीरे-धीरे जमा होता जाता जल
सिरीकी बांध, दुगुड़ी, ईसाई पहाड़
नूआ गली, पठान गली, बाजार चौक, महागुड़ा गली
और जिले का एकमात्र एमएमसी अस्पताल ।
जहां कभी-कभार आते ब्रिटेन के डॉक्टर
बन गरीबों की आशा और विश्वास का सागर
मेरे छोटे भाई-बहनों को मिला वहाँ जीवन का उपहार।
कालातीत अब समय और स्थान
जैसे दे रहा हो कोई निरर्थक भाषण
या, हिमालय की अनाम जड़ी-बूटियों का वन ।
जब बीत जाते बारिश के दिन
सूरज देने लगता दर्शन
तिलचट्टे और मक्खियों से भर जाता आँगन ।
एक शाम मच्छरदानी में बैठी पुस्तक पकड़कर ,
गौरंगा चरण रथ की, " आकाशवाणी ..." पर आई खबर
उदयगिरि में आई बाढ़ भयंकर ।
एक किनारे से दूसरे किनारा ‘मिली बयानी’
खंडहर दरकने लगे बारिश के पानी
ढहने लगी शहर की कमजोर किलेबंदी।
सब जगह भरा हुआ था जल जैसे सागर
उदयगिरि , दरिंगबाड़ी ,कुम्भकूप ,
कानबागेरी , बदनाजू , मलिकापोरी , कलिंग और भंजनगर
बिना सोये गुजारी वे रातें ,
तिलचट्टों के पैर गिनते
मच्छरदानी में सिर पर डायनासोर जैसे मँडराते।
केवल सोचती रही, निचले इलाकों में डूबे घर
बाढ़ में डूबे खेत और गाँव की डगर
जहां कुछ नहीं उगेगा, सिवाय खतपतवार ।
केवल आह ! कह रहा था दुखी मन
मेरी बहिन देख रही थी दु:स्वप्न
जल-निमग्न हो गए कई परिजन ।
पड़ोसी-बाबू , गूनी , बापूनी बह गए जल-धार
माताएँ करने लगी विलाप,बहाते हुए अश्रु-धार
माँ ने भी खोया अपना इकलौता आँखों का तारा ।
हुआ था उसे मस्तिष्क-आघात, तो मैं कैसे सो पाती उस रात ?
मेरी बहन फुसफुसाई, "क्या तुमने सुनी कुछ आहट '?"
मैंने कहा, " दीदी , सो जाइए- उदयगिरी है सुरक्षित और शांत।"
हम रात भर कल्पना करते रहे बारिश की ओट
कैसे सितारें, चंद्रमा गगन में होंगे प्रकट
पहनकर मनमोहक इंद्रधनुषी मुकुट ।
लिए आसमानी सुंदर छबि का विशेषाधिकार
महत्वाकांक्षी नील गगन से होती वर्षा प्रचुर
महत्वाकांक्षी? नहीं, उदयगिरी महत्वाकांक्षाओं से थी दूर ।
मगर अवश्य महत्वाकांक्षी था सुबह का सूर्य
बारिश के महीनों के बाद सर्दियों का आदित्य
कैसे करता प्रदर्शन उदयगिरी का वैभव-ऐहित्य ?
ओड़िशा के प्राचीन समुद्री इतिहास पर नजर
नम, काली शामें जैसे बोझ से झुका हो सिर
हमारे पापों की आंधी जैसे हुंआ-हुंआ करते सियार ।
ऐसे में मेरी आँखों में नींद कहाँ ?
सुनाई पड़ती दुख-दर्द भरी आवाजें, अहा!
मन भटकता रहता सारी रात जहां-तहां
मैंने यहाँ सीखी मौन और धैर्य की वर्णमाला
बगैर किए किसी से दुश्मनी, या क्रोध-दिखावा
सर्दियों में उदयगिरि है ओड़िशा की दार्जिलिंग-पर्वतशृंखला।
उदयगिरि में होती है केवल, बारिश और सर्दी दो ऋतु
हमेशा उदार बना रहता महत्वाकांक्षी सवितु
रहता सदैव कलिंग घाट के घने जंगलों में सुषुप्त ।
ग्रीष्म ऋतु का दूसरा नाम था बसंत '
चहचहाते ‘बेज’ पक्षी गुलमोहर के शिखांत
लाल फूलों से लदे, पर्ण रहित ।
मेरे विद्यालय के रास्ते जाती मैं कूदती-कूकती बन कोयल
उसकी कोकिल आवाज को भूल
बहुत मजा आता था मुझे खेलने में वह खेल ।
आज भी महानगर में जिंदा है मेरा वह खेल
आज भी अंकित है मेरे मानस-पटल
उदयगिरि के पक्षियों का किल्लोल ।
तभी तो मेरा नाम रखा गया नंदिनी,
आज भी महसूस करती हूं अपने भीतर वह वाणी
यकीन नहीं आ रहा, कैसे बनी मेरे अस्तित्व की रानी ।
इस तरह खंडहरों के बीच मैं पली-बढ़ी, धैर्यपूर्वक,
उछलने-कूदने की कला में हुई परिपक्व
छाया के संग सुबह से लगाकर शाम ढलने तक ।
हर रात मेरी छाया रेंग आती मेरे द्वार
साथ में, उदयगिरि से सौगात मिली क्षति और प्यार
अस्पृश्य, मगर महसूस होते मेरे भीतर ।
दीवारों से सांस की अनुभूति
सोचकर गोल्ला गली के हमारे घर की दीवार,
उस पर कालातीत प्लास्टर
जैसे हाथियों की भ्रामिक परछाई,
ज़ेब्रा या पागल औरत का फटा हुआ सिर
या कुत्ते के भौंकने या जम्हाई लेने के स्वर। सांस लेती परछाई।
अंधेरे में छूकर महसूस करती हूं खंडहर
मेहराब, दीमक खाए एल्बम,टूटे पिलर
उमस, चिपचिपाहट, कंघी और क्रीम-पाउडर
बिछुड़े माता-पिता और भाई-बहन।
मैं आसमान पर खींचती हूँ तस्वीर
जो दर्शाती है मेरी पीड़ा-पीर
स्वर्ग पंखों समेत उतरता धरा पर,
नहीं मिलता उसे कोई सुराग, मैं हो जाती हूँ उदास,हताश और निराश।
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