Death
Ask me why life is pain
and love is a painful still
Ask me what is life and what is death,
for I have died from inside
time and again-
Each time getting up from my stinking, rotting corpse,
Each time my ghost crossing lanes
like a shadow,
my lifeless contents swearing
for no more births and deaths
Ask me how I stammer
inside my ancestral body
when I doubt my birth, my existence,
when the Aryan and Dravidian
bloods flow together
in my vein, stinging my
cells, and my bones
Loading me alone a route I've never known before
Time takes me to the darker paths of death,
But at each turn I near life, I whisper life,
Like a spectral flame you vanish-Death!
You can not believe death dear,
Can you, that my soul wanders
in deserts and civilizations,
That I am alone, alone, all alone
and I miss myself within meridians
I wish I were mellow like mercury,
I were the queen in your kingdom,
the kingdom of death-
the paragon of virtue, beauty, mystery,
I were rather, I wish,
the hooded snake,
stirring up the dust of life-
this life of dry sands and mirages.
Ask me my dear-the only one-
to suck the nectar from
your poisonous breast,
and die this melodramatic, melodious
death the medium to
wake up eternally from these moments
of everyday kill,
where death's ferrous fingers
will pull the remaining hopes to live
from my green skull.
Not knowing your language
Dear.;
I translate you into my boiling, bleeding heart,
I kiss your eyes, dear,
your lips gone black, caress your burnt cheeks
and creep to your body
like serpent/ Satan creeping to the apple bough,
like Leda creeping to Swan,
like Draupadi's long dark hair
creeping to her sensuous, aromatic body,
like dreams creeping to eyes in veiled nights.
Ask me to reveal the mystery
of experiencing you, death,
petal by petal-
now my senses going, and
now going to inner visions,
now my dreams dying, and
now stammering my words, my poetry;
now my hands waving to wakeful stars,
now wailing my breasts-sinking.
Death, dear
Turn inward, scrape the bottom of your past,
Seek your throne in the thorns
of my rotten body—the hell,
my decaying mind-the gall
my falling breath-the gasp.
In my midnight musings
come dear,
touch me, feel me,
and let me feel the loss of,
love of this life -
I never once received.
It's time now...
Let you and me scrape home
with passions, older and
more sensuous that the stones of Konark
in this immobile pelagic city -
I have never once escaped !!
मौत
मुझसे पूछिए जिंदगी कष्टदायक क्यों है ?
और प्रेम भी दर्दनाक अब तक ?
मुझसे पूछिए क्या होती है जिंदगी और मौत?
क्योंकि मैं भीतर से मर चुकी हूँ
बार-बार
हर बार उठती हूँ अपनी सड़ती हुई बदबूदार लाश से,
हर बार मेरा भूत पार करता है गलियां
छाया की तरह,
शपथ खाते हैं मेरे निर्जीव अंग
और कभी नहीं लेंगे जन्म
मुझसे पूछिए कैसे तुतलाती हूँ मैं
अपने पैतृक शरीर के भीतर
जब मुझे अपने जन्म और अस्तित्व पर
संदेह होता है
जब आर्य और द्रविड़ रक्त
बहने लगता है मेरी नसों में
चुभने लगता है मेरी कोशिकाओं में
और मेरी अस्थियां मुझे उस रास्ते पर
ले जाती हैं, जिसकी मुझे पहले जानकारी नहीं थी
समय मुझे खींचता है मौत के अंधेरे रास्तों पर
मगर हर मोड़ पर मैं जीवन को नजदीक पाता हूँ
मैं जीवन बुदबुदाता हूँ
और तुम सप्तरंगी लौ की तरह बुझ जाती हो- मौत!
तुम मौत का विश्वास नहीं कर सकते हो, प्रिय
क्या मान सकते हो कि मेरी आत्मा भटकती है
रेगिस्तान और सभ्यताओं में?
क्योंकि मैं अकेली हूँ, अकेली, पूरी तरह से अकेली
और मैं अपने आपको देशांतरों में खोजती हूँ
काश, मैं भी पारे की तरह मधुर होती
मौत के साम्राज्य में-
सद्गुण, सौंदर्य और रहस्य का अनोखा उदाहरण बन
बल्कि मैं फनधारी
सांपिन होती
जीवन की धूल को खंगालती-
सूखी रेत और मरीचिका वाला जीवन।
पूछिए मुझसे मेरे प्रिय केवल एक बात-
तुम्हारी विषैली छाती से
अमृत सोखकर
मधुर नाटकीय मौत मरना-
जो प्रतिदिन मरने से तो बेहतर है
शाश्वत जागने का माध्यम बन
जहां मौत की लौह-अंगुलियां
मेरी जीवित खोपड़ी से
जीवन की बची-खुची आशाओं को खींच लेती है।
तुम्हारी भाषा नहीं जानते हुए भी, प्रिय
मैं तुम्हारा मेरे रक्ताक्त उबलते हृदय में अनुवाद करती हूँ
चूमती हूँ मैं तुम्हारी आंखें, प्रिय
तुम्हारे काले अधर, दग्ध गाल
और रेंगने लगती हूँ तुम्हारे शरीर पर
सेब पेड़ की शाखाओं पर शैतान सांप की तरह
हंस पर लेडा की तरह
द्रोपदी के सुगंधित शरीर पर उसके
लंबे बालों की तरह
घुंघट भरी रातों में आंखों में उतरते सपनों की तरह।
मौत ! मुझसे पूछिए प्रकट करने को
तुम्हें अनुभूत करने के रहस्य को
पंखुड़ी-दर-पंखुड़ी
मेरी इंद्रियां शिथिल हो रही है
मैं अपने भीतर झांक रही हूँ
अब मेरे सपने मर रहे हैं
अब मेरे शब्द, मेरी कविता लड़खड़ा रही है
अब मेरे हाथ चमकते सितारों की तरफ हिल रहे हैं
अब मेरी छाती रुद्ध हो रही है, डूब रही है।
प्रिय मौत !
भीतर मुड़कर, खुरोंच दो अपने अतीत के निम्नतम हिस्से को
तलाशो काँटों में अपना सिंहासन
मेरे सड़े हुए नारकीय शरीर का
मेरे जीर्ण-शीर्ण मस्तिष्क का
मेरी हाँफती हुई अंतिम सांसों का ।
मेरी अर्ध रात्रि के चिंतन
आ जाओ प्रिय !
स्पर्श करो मुझे, महसूस करो मुझे
इसकी हानि महसूस होने दो मुझे
इस जीवन का प्यार-
जो कभी मुझे मिला नहीं ।
अभी भी वक्त है...
खंगालना शुरू करें तुम और मैं
अपना घर जुनून के साथ
इस अचल समुंद्री शहर में
आकर्षक पुरातन कोणार्क के पत्थर,
जिससे मैं एक बार भी बच नहीं पाई ।
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