Sukamaa
She passed away. Suka-maa
Suka's mother. Suka's—Sakunta's—
Shakuntala's mother.
She was the mother earth,
the virtual mother of we six sisters.
In our love, perhaps she loved less her
Suka, Shaila and Koili, her own daughters.
One day, we flew the nest
making her grope
and forever brood.
Today, Sukamaa
(had she any other name? ) died.
When a poor taps my car window
at the red lights of Connaught Place
I have a shudder of relief that
I am not on the opposite side.
The leitmotif of time — has it
made me such esoteric?
Then who reminds me time and again
of Sukamaa, our childhood
domestic-help, our foster-mother,
the rural poor tribal
the Kondh old woman
illiterate, deprived, downtrodden
the subaltern one among the crores
that constitute real India?
Sukamaa, the real homemaker
in our suburban household,
she would fight with our
schoolteacher-disciplinarian-mother
for being strict with us. would
not mind if my younger sisters would
urinate or shit on her lap.
Shy about the criss-cross tattoos
on her rather pretty face (which.
her mother had etched to
make her less-beautiful. thus, less-desirable!),
she would swear about tales from
her youth. when many a men
were engrossed to have
just a glance of her!
We were a foil set against her
to depict her ugliness
her tattooed face.
We felt so purified after ''
we had disbursed our dirt on her.
We felt so pretty when
we hoisted straight across her ugliness.
Her ease adorned her.
Her culpability consecrated us.
Her feebleness made us glimmer with health
her inelegance made us
reason we had wisdom.
Her inarticulateness made us trust
we were persuasive.
Her poverty kept us lavish.
We sharpened our personality on
her propelled our charms
with her fragility.
And nodded in the imaginary world
of our power.
Today
we are sophisticated, articulate.
We confront life with ease
like we did for years
without knowing that it was she
in her ugly, sordid, squalid
haunt, who prayed for us
day and night.
Today we pretend
with decent planning for intelligence.
Reschedule deceptions
and call them a point.
We are coping with the tough
business called life, facing the
predicament of survival
tearing apart the bonding
between her and us.
Villages have given way to cities
we have moved
from innocence to experience.
Her story is an incredible mosaic
about a generation, our generation
of the metropolis, the NRIs—
ashamed of Sukamaa's poverty amid
our chaotic urbanization.
Forgetting that
Sukamaa had created a symphony
of time and place.
Eating a proper meal was an indulgence
not meant for her, she felt.
Interposed between two worlds — her poor
thatched house and
our luxurious apartment — contradicting,
empathizing, appalling, opposing
each other. Her dedication had
no master plan
her dream was only to watch
we rising stars, in
a galaxy where the privileged
disdain the sprawling slum.
Sukamaa's silent death inquests.
Would human goodness
silently triumph someday?
Would we ever get over the fascination
to our feigning melancholy and
be like her?
isn't it the conscientiousness of
an unwitting bystander like me
to tell her untold tale amid
all these sagas of quick-fix
TV channels on yoga, beauty care,
weight loss and wealth-gain?
Isn't it my moral obligation
to an unmindful posterity
to tell Sukamaa's slum-dog tale?
12. सुको मा
वह गुजर गई- सुको -माँ
सुको की माँ, सुको – सकुंता -
शकुंतला की माँ।
वह थी धरती मां ,
हम छह बहनों की धाय माँ।
हमसे वह जितना प्यार करती थी,
अपनी बेटियों
सुको , शैला और कोइली से भी ज्यादा ।
एक दिन, हमारा आशियाना
उजड़ गया हमेशा के लिए
आज सुको मा (उसका दूसरा भी कोई नाम था?)
हमें छोडकर चली गई दूसरे धाम ।
जब कोई गरीब भिखारी खटखटाता है, मेरे कार की खिड़की
कनॉट प्लेस के लाल-बत्ती चौराहे पर
मैं पाती हूँ थोड़ी-सी राहत
यह सोचकर कि कम से कम उस तरफ नहीं मेरा स्थान।
कहीं समय की धारा ने तो
मुझे नहीं बना दिया ऐसा निष्ठुर ?
फिर क्यों आती है याद मुझे बार-बार
सुको मा की , हमारे बचपन में घर की मददगार ,
हमारी धाय माँ,
एक ग्रामीण गरीब आदिवासी
कंध बूढ़ी औरत
अनपढ़, वंचित, दलित
करोड़ों में से एक मातहत
जो गढ़ते है वास्तविक भारत ?
सुको मा , असली गृहिणी
हमारे कस्बाई घर में,
हमारे लिए लड़ती वह
हमारी अनुशासन-प्रिय स्कूल-शिक्षिका-माता से
हमारे साथ सख्ती बरतने पर ।
वह बुरा नहीं मानती
मेरी छोटी बहनें
उसकी गोद में अगर कर देती पेशाब ।
उसके सुंदर चेहरे पर
गोदी हुई आड़ी-तिरछी लकीर
(जो उसकी माँ ने उसे कम सुंदर
बनाने के लिए खिंचवाई थी !);
वह सुनाती थी सौगंध खाकर
अपनी जवानी की कहानियां
जब बहुत से दीवाने
तरसते थे पाने को उसकी एक झलक !
हम मान जाते थे अपनी हार
उसका सुंदर चित्रण सुनकर
उसके कुरूप गोदे हुए सुंदर चेहरा ।
हम महसूसते थे ज्यादा शुद्ध
जब उंडेल देते थे हमारी गंदगी उस पर ।
हमें लगता था बहुत अच्छा
जब हम फहराते थे सीधे उसकी बदसूरती की पताका ।
उसे शोभित करती थी उसकी सहजता
हमें दिलासा देता था उसकी साधारणता ।
हमारे स्वास्थ्य में चमकती थी उसकी निर्बलता
हमारा तर्क बनती थी उसकी अप्रांजलता
क्योंकि हमारे पास थी बुद्धिमता ।
हमें भरोसा दिलाती थी उसकी अस्फुटता
क्योंकि हम थे प्रेरक-शक्ति के ज्ञाता।
उसकी गरीबी ने बनाया हमें मुक्त-हस्त
निखारा हमने अपना व्यक्तित्व ।
उसकी कोमलता ने बढ़ाई हमारी सुंदरता ।
और यथा-शक्ति हमने बनाया अपना काल्पनिक जगत ।
आज
हम परिष्कृत, मुखर हैं।
हम जीवन का सामना सहजता से करते हैं
जैसे हम सालों से करते आ रहे हैं
जानते हुए भी कि वह
बदसूरत, मैली-कुचेली,भूतनी-सी
जो हमारे लिए प्रार्थना करती थी
रात-दिन।
आज हम करते हैं प्रदर्शन
बुद्धि से बनाकर सुंदर योजना ।
पुनर्निर्धारित धोखों का
करते हैं हम सूक्ष्म-चित्रण ।
हमारा व्यवसाय हैं कठिन
जिसे कहा जाता है, जीवन
बचाकर उत्तरजीविता का अस्तित्व
उसके और हमारे बीच का
तोड़कर बंधन ।
गांवों से हुआ शहरीकरण
हमने आगे रखे अपने कदम
मासूमियत से औद्योगीकरण ।
उसकी कहानी एक मोज़ेक है अविश्वसनीय
एक पीढ़ी, हमारी महानगरी पीढ़ी,प्रवासी भारतीय -
जो सुकमा की गरीबी पर होते हैं लज्जित
हमारे अराजक शहरीकरण के कारण।
यह भूलकर कि
सुकमा एक सिम्फनी है
समय और स्थान की।
उचित भोजन मिलना उसके लिए प्रसाद था
जिसे वह अनुभव करती थी।
दो दुनियाओं के बीच का अंतर –
उसका गरीब घर और
हमारे शानदार अपार्टमेंट का विरोधाभास,
उसके समर्पण का कोई कोई मास्टर प्लान नहीं था
वह केवल सपनें देखती थी
हमें सितारें बनते देखने की
उस आकाशगंगा में, जिसे विशेषाधिकार प्राप्त है
झुग्गी-झोपड़ी के तिरस्कार करने का ।
सुकमा की खामोश मौत पूछती है:-
क्या कभी मनुष्यता चुपचाप जीतेगी ?
क्या हम कभी उबर पाएंगे
अपनी उदासी से और
बन सकेंगे उसके जैसा ?
क्या यह मेरे जैसे एक अनजान व्यक्ति के
अंतकरण की शुद्धता का प्रतीक नहीं है
उसकी अनकही कहानी सुनाना ?
जबकि टीवी चैनलों पर योग, सौंदर्य-देखभाल,
वजन घटाने और धन-लाभ के किस्से सुनाए जा रहे हो ?
यह मेरा नैतिक दायित्व है
उन्मादित भावी-पीढ़ी के लिए
सुकमा की झुग्गी-झोपड़ी वाली कहानी सुनाऊँ।
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