She is that Woman
She is that woman
who believed that the stones can sulk
and the wind can hide
and the sun is not a ball of fire
but a cool trophy from the womb
smearing the balm of love
over bereaved hearts.
She was told by her father,
"your name means sabko anand dene wali, you
must make everyone smile
and the world a better place to live in."
She took it to her heart
and took it in her stride.
Her silence was such articulating
her words so silent!
Living was the ritual of her life
giving made the sun
rise in her face.
She became Apollo in Greece
Liza in Africa Surya in India, and
Rha in Egypt.
She became
a poet, a giver, a
yellow leaf from an autumnal tree
laden with
lyric, elegy, ode and sonnet.
One day with a mangalsutra around
her throat, bruises on
her neck
and nape. lips swollen with
flings maladroit
eyes of somnambulism,
she returned
home
form a so-called honeymoon
feeling so deceived,
holding hands of an aging man.
The cerebral pain of the brain and
the celebrated pain of motherhood
sullied her soul, scared her.
Since then
fear wrapped her so well
even in the freedom of her
dreams it came as a nightmare.
Could that stop the ritual?
'Sabko anand dene wall....'
Looking straight at the
fire and the heat called fate
now
she cooks her yolk and white
and
she, only, eats.
Now there is no darkness
beneath the lamp.
There can even be
no light in the pyre!
Now her vision blurred
and breasts sagging, yes.
Or, perhaps, she imagines so!
For her
birth to youth to death
is, no doubt,a gigantic leap.
How old is she? Twelve years?
only as old as her son
has called her Maa!
His gestures, shade, music
and chant
have descended on her;
that's her ocean, deep.
She is the
blue heart of heaven
the yellow bosom of
expansive mustard fields
standing radiant and serene
saluting the sulking stones
rejoicing the
random caress of
the thorn and the rose
content or discontent.
13. वह ऐसी महिला है
वह ऐसी महिला है
जो विश्वास करती थी कि पत्थर डूब सकते हैं
और हवा छिप सकती है
और सूरज आग का गोला नहीं है
बल्कि हिरण्य-गर्भ से निकली शांत वैजयंती है
जो प्रेम का बाम लगाती है
शोक संतप्त दिलों पर।
उसके पिता अक्सर कहते थे ,
"आपके नाम ‘नंदिनी’ का अर्थ है सबको आनंद देनी वाली,
आपको लानी चाहिए हर किसी के चेहरे पर मुस्कान
और बनाना चाहिए दुनिया को रहने का बेहतर स्थान ”
दिल पर लेकर यह कथन
करने लगी वह चिंतन-मनन ।
उसकी नीरवता ऐसी व्यक्त
उसके शब्द इतने शांत !
जीवन-जीना जैसे हो एक संस्कार
जिससे खिल उठा उसका चेहरा
मानो पूर्व से उदय हुआ हो नव-भास्कर ।
बन गई वह ग्रीस में अपोलो
अफ्रीका में लिज़ा,
भारत में सूर्य
और मिस्र में रा ।
बन गई वह
एक दाता, एक कवयित्री
पतझड़ के पेड़ की पीली पत्ती
जिस पर लदे हुए थे गीत
काव्य, छांदस गाथा और शोक-गीत।
उसके गले में पड़ा मंगलसूत्र एक दिन
करने लगा घर्षण
उसकी गुददी और गर्दन
अधरों पर मधु-मक्खियों का दंशन
लिए निद्रालु नयन
वह वापस आई अपने सदन
मनाकर तथाकथित हनीमून
ठगी हुई महसूस कर रही थी अपने मन
क्यों किया बूढ़े आदमी से पाणि-ग्रहण ?
इधर सिर में भारी माइग्रेन
उधर मातृत्व का प्रस्फुटन
भयभीत हुई उसकी आत्मा ।
उसके बाद
भय ऐसे घुसा मन
कोई भी उन्मुक्त स्वप्न
बनने लगा दु:स्वप्न ।
क्या वह रोक पाएगी अनुष्ठान ?
' सबको आनंद देने वाली ...।'
सीधे देखने वाली
आग और गर्मी की तरफ
कहते हैं जिसे भाग्य
अभी
वह बनाती है अपनी सफ़ेद जर्दी का भोजन
और खाती है वह एकांत उदास मन ।
अब नहीं है अंधकार
दीपक के उस पार
नहीं भी हो सकता उधर
चिता में अंगार !
अब धुंधला गए है उसके नयन
और ढीले पड़ गए है उसके स्तन
या, शायद, वह ऐसा सोचती है अपने अंतकरण !
उसके लिए
जन्म से युवावस्था और फिर मृत्यु का वरण
निस्संदेह, बाकी है लंबी छलांग उसके गगन ।
उसकी क्या उम्र है? बारह साल?
अपने बेटे जितनी
पुकारता है जो उसे माँ !
उसके हावभाव, छटा, संगीत
और उच्चारण
सब उसके जैसा ही;
वह है उसका सागर-मंथन ।
वह है
स्वर्गिक हृदय का नील गगन
विस्तृत सरसों के खेतों का पीत-परिधान
निर्मल और दीप्तिमान
रूठे पत्थर को करती नमन
आनन्दित होती
कभी-कभी सहलाती
गुलाब और कंटक
संतोष या असंतोषजनक ।
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