Lord Jagannath, the God with half-done Limbs
When my words are overcooked
in the double-tongued obscurity
of the opaque heart
I wonder
what’s the need for grief or alarm,
independence or the lack of sovereignty,
the heavy golden jewelry, the saving accounts,
the artificial hair of my neighboring beauty,
the moon, the calendar on the table, my
Omega-3 tablets, love, lust
or even poetry?
Mother! Why doesn’t He have complete limbs?
Who left Him like this--half-done?
Why is he cavernous black?
Why are his eyes always swollen and unblinking??
I search for answers in my
intrepid, unfazed heart,
nonchalant at the naked rooms;
I think of children whom the world
has deserted
because they have derelict or half-done limbs.
The dark-skinned who have a
a frozen-time. I ponder over their providence.
Their ancient limbs and face
spinning into a papyrus.
It’s convergence my son! It’s His way of
humanizing the mechanics of tolerance.
The Lord of the Universe, Lord Jagannath,
sans complete limbs, with an ugly face,
ogling, unblinking eyes and a dark skin, is
the charming, absorbing of all, the pious of all.
The most accomplished, the most adorable, most alluring.
Then I know it’s the first light of
creative contemplation.
It’s daybreak for ingenuity
breaking the parapets of opaque.
without orders from above.
अधूरे जगन्नाथ क्यों?
हृदय के अंधेरे में
दोहरी जुबान वाले
मेरे अस्पष्ट शब्द, जब ज्यादा पक जाते हैं
मैं सोचती हूं
क्या जरूरत है
वेदना या चेतना की,
स्वतंत्रता या संप्रभुता की
सोने के भारी गहनों, बैंक खातों की
मेरे पड़ोसी सुंदरी के कृत्रिम बालों की
चांद, टेबल पर रखे कैलेंडरों की
मेरी ओमेगा-3 की गोलियों
प्यार, वासना या
काव्य-कविता की?
“माँ! उनके पूर्णांग क्यों नहीं है?
किसने उन्हें आधा-अधूरा छोड़ दिया?
क्यों वे इतने काले-कलूटे हैं?
उनकी निर्मिमेष आंखों में सूजन क्यों है?”
मैंने अपने निडर मस्तमौला हृदय में,
उन सारे प्रश्नों के उत्तर तलाशे,
नग्न कमरों की परवाह किए बगैर,
मैंने उन बच्चों के बारे में सोचा
जिन्हें दुनिया ने त्याग दिया
क्योंकि या तो वे लावारिस थे या अर्द्धांग,
या फिर ऐसे काले-कलूटे मानो समय थम गया हो
मैंने उनके तौर-तरीकों के बारे में सोचा
उनके पुराने अंग और चेहरे
जल-पादपों के इर्द-गिर्द पड़े दिखाई दिए।
“यह अभिसरण है मेरे बेटे!
यह उनका अपना तरीका है,
सहिष्णुता की यांत्रिकी को मानवीय बनाने का
ब्रह्मांड के अधिपति, भगवान जगन्नाथ
कुरूप चेहरा, बिना पांव, बिना हाथ
विस्फारित, निर्निमेष नेत्र और काली त्वचा
फिर भी आकर्षण!
सभी को अपने भीतर समाने की शक्ति
सभी से ज्यादा पवित्र
सबसे ज्यादा आकर्षक
सबसे ज्यादा लुभावनी
सबसे ज्यादा पूर्ण
तब मेरी समझ में आई,
इस सर्जनशील चिंतन की पहली किरण
अपारदर्शी मुंडेरों को तोड़ती प्रभात
बिना किसी ऊपरी आदेश के।
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